हम कहाँ जा रहे हैं? हम किसे देवत्व प्रदान कर रहे हैं? हम किसकी आराधना में स्वयं को विस्मृत कर रहे हैं? एक खिलाड़ी अथवा एक दल, जब अपने समकक्षों के मध्य प्रतिस्पर्धा करता है, तो वह न केवल एक खेल खेलता है, वरन् पूरे राष्ट्र को अनेक खंडों में विभक्त कर देता है। बुधवार को जो कुछ घटित हुआ, उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। भारतीय समाज में किसी भी घटना के पश्चात दोषारोपण और राजनैतिक रेखाचित्र खींचना एक स्थापित प्रवृत्ति बन चुकी है। परंतु इस समस्त कोलाहल में यदि कोई पराजित हुआ है, तो वह है आमजन—जो किसी खिलाड़ी को अपने ईश्वर के समकक्ष पूजता है, और अंततः स्वयं पीड़ित होता है। पराजित हुए वे खिलाड़ी, जो अपने परिश्रम का प्रदर्शन करने आए थे; पराजित हुई वह भावना, जिसने राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधना था। मैं इसे केवल ‘प्रदर्शन’ नहीं, अपितु ‘शक्ति-प्रदर्शन’ कहता हूँ। अठारह वर्षों के उपरांत जो विजय प्राप्त हुई, वह एक खेल की जीत नहीं थी, वह जनसंग्रह की मूर्त अभिव्यक्ति बन गई। क्रिकेट में मेरी कोई विशेष अभिरुचि नहीं, पर मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि यह वही लोग हैं, जो यदि ऋषि जमदग्नि जैसा आदेश मिले, तो संभवतः माता का वध करने से भी विचलित न हों। जो दृश्य और समाचार सामने आए, वे न केवल विचलित करने वाले थे, बल्कि वे समाज के मौन पतन की ओर भी संकेत कर रहे थे। किंतु जब कभी ऐसी भगदड़ अथवा जनसमूह में त्रासदी होती है, तो पीड़ित सदैव आमजन ही होता है। चाहे वह किसी अभिनेता के प्रीमियर में हो या प्रयागराज के महाकुंभ में। 4 दिसंबर की दोपहर, एक अभिनेता की फिल्म ‘पुष्पा-2’ के प्रीमियर में जो भगदड़ हुई, उसमें जनहानि हुई और समाधान स्वरूप उस अभिनेता को आमंत्रित किया गया। प्रश्न यह नहीं कि वह आए या नहीं, प्रश्न यह है कि उसके आने से यदि जनसमूह उन्मत्त हुआ, तो उत्तरदायित्व किसका था? उन लोगों का, जिन्होंने अपने पाँव के नीचे किसी बालिका के हाथ को अनुभव नहीं किया? हम उस समाज के प्रतीक हैं, जो एक पालतू कुत्ते की भाँति दिनभर जंजीर से बंधा रहता है, और जब कोई स्नेहिल स्पर्श करता है, तो उसी पर झपटने लगता है। परंतु यह आचरण उसकी विवशता है, उसकी संवेदनहीनता नहीं। फिर हम क्यों, जो चेतना और विवेक से संपन्न हैं, मात्र एक चित्र, एक क्षणिक प्रसंग के लिए किसी के जीवन को रौंद देते हैं? यदि महाकुंभ का उल्लेख न किया जाए, तो यह विमर्श अधूरा रह जाएगा। 29 जनवरी, 2025 को प्रयागराज में मौनी अमावस्या के अवसर पर संगम क्षेत्र में भगदड़ मच गई। 30 लोग मृत हुए, 60 से अधिक घायल हुए। दोष किसका था—प्रशासन का, आस्था का, या उस अंधभक्ति का जो विवेक को विस्मृत कर देती है? मृत्यु सर्वत्र होती है, परंतु ऐसा काल-तांडव केवल भारत में क्यों घटित होता है? मेरा एक मित्र, जो चेक गणराज्य से है, कहता है कि भारत को विकसित होने में अभी 50 वर्ष और लगेंगे। मैं इसका खंडन नहीं कर सकता, क्योंकि जब हम किसी व्यक्ति को भगवान बना देते हैं, जब हम उसके चरणों की धूल के लिए स्वयं को मिट्टी बना देते हैं—तो वह ‘विकास’ नहीं, वह ‘विनाश’ की भूमिका बन जाती है। यदि मैं कहूँ कि तुमसे बड़ा पापी कोई नहीं, तो संभवतः तुम मुझसे विमुख हो जाओगे, अथवा मेरी नासिका से रक्त प्रवाहित कर दोगे। क्योंकि तुम्हें सिखाया गया है कि पाप भयावह है, पर यह नहीं बताया गया कि वह क्या है। जब तुम कुंभ में जाकर 6 शाही स्नान करते हो, और पूछने पर कहते हो कि शुद्धि हेतु गए थे—तो क्या यह वही शुद्धि है, जिसमें तुम दूसरों को रौंदते हुए संगम तक पहुँचते हो? सवाल अत्यंत लघु है, पर उसके उत्तर में हम अपना समस्त जीवन दाँव पर लगा रहे हैं: क्या वे लोग, जिनके लिए हम अपने जीवन को होम कर रहे हैं, वास्तव में उस समर्पण के योग्य हैं? उत्तरदायित्व किसका है? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।