भारत में “वन नेशन, वन इलेक्शन” (One Nation, One Election – ONOE) का विचार कई वर्षों से चर्चा का विषय बना हुआ है। यह विचार देश में लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने की योजना को लेकर है। समर्थकों का मानना है कि इससे समय, पैसा और संसाधनों की बचत होगी, वहीं विरोधियों का कहना है कि यह भारत की संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक गंभीर खतरा है। आइए जानते हैं अब तक इस विषय में क्या-क्या हुआ, क्या विवाद उठे और इसका भविष्य क्या हो सकता है।
वन नेशन, वन इलेक्शन क्या है?
“वन नेशन, वन इलेक्शन” का मतलब है कि पूरे देश में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। वर्तमान में भारत में हर राज्य में चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं, जिससे पूरे साल किसी न किसी राज्य में आदर्श आचार संहिता लागू रहती है। इससे सरकार के कामकाज पर प्रभाव पड़ता है।
इतिहास: एक समय था जब ऐसा होता था
- 1951-52: भारत में पहले आम चुनाव के समय, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए गए थे।
- यह सिलसिला 1967 तक जारी रहा, लेकिन बाद में कुछ विधानसभाएं समय से पहले भंग हो गईं, जिससे यह समन्वय बिगड़ गया।
- इसके बाद से अलग-अलग चुनावों की परंपरा बन गई।
अब तक क्या-क्या हुआ?
2004 और 2010 के बाद चर्चा में फिर आया विचार
- 2004 में चुनाव आयोग ने सुझाव दिया था कि देश को दो चरणों में चुनाव कराने की दिशा में बढ़ना चाहिए।
- 2015 में पीएम नरेंद्र मोदी ने इस विचार को जोर-शोर से उठाया और इसे सरकार की प्राथमिकता बताया।
2018: विधि आयोग की रिपोर्ट
- विधि आयोग ने “समान चुनाव” पर एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें इसे लागू करने के लिए संवैधानिक संशोधनों की सिफारिश की गई थी।
- रिपोर्ट के अनुसार, इसके लिए संविधान के कम से कम 5 अनुच्छेदों में बदलाव की ज़रूरत होगी।
2023-24 में बड़ा कदम
- सितंबर 2023 में केंद्र सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति गठित की।
- इस समिति में कानून मंत्री, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश समेत कई प्रमुख लोग शामिल थे।
- समिति ने सुझाव दिया कि देश को इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए, लेकिन यह तभी संभव है जब राज्यों और विपक्ष की सहमति मिले।
संसद में क्या हुआ?
- दिसंबर 2024 में सरकार ने इस पर एक चुनावी सुधार विधेयक लोकसभा में पेश किया।
- लेकिन, विपक्ष के भारी विरोध और आवश्यक दो-तिहाई बहुमत न मिलने के कारण यह बिल अस्वीकृत हो गया।
क्यों हो रहा है विरोध?
1. संघीय ढांचे को खतरा
- विपक्षी दलों का कहना है कि यह प्रस्ताव भारत की संघीय संरचना को कमजोर करेगा।
- राज्यों को स्वायत्तता का अधिकार है, और यह अधिकार केंद्र की इच्छानुसार सीमित नहीं किया जा सकता।
2. लोकतंत्र पर असर
- अलग-अलग चुनावों से जनता बार-बार सरकार से जवाबदेही मांग सकती है।
- सभी चुनाव एक साथ कराने से यह जवाबदेही हर पाँच साल में एक बार सीमित हो जाएगी।
3. व्यवहारिक कठिनाइयाँ
- सभी विधानसभाओं का कार्यकाल एक जैसा नहीं है।
- राष्ट्रपति शासन, असमय विसर्जन जैसी स्थितियों में फिर से चुनाव कराना पड़ेगा, जिससे “वन नेशन, वन इलेक्शन” की स्थायित्व चुनौतीपूर्ण हो जाती है।
समर्थन करने वालों की दलीलें
1. खर्च में भारी कमी
- चुनावों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च होते हैं। ONOE से यह खर्च काफी कम हो सकता है।
2. बार-बार आचार संहिता से बचाव
- अलग-अलग चुनावों के कारण बार-बार आचार संहिता लगती है, जिससे नीतिगत फैसलों में देरी होती है।
3. सुशासन पर ध्यान
- सरकारें बार-बार चुनावी मोड में रहती हैं, जिससे विकास और नीतिगत निर्णयों में रुकावट आती है।
कहाँ तक पहुँचा मामला अब?
- समिति ने अपनी रिपोर्ट केंद्र को सौंप दी है, लेकिन राजनीतिक सहमति की कमी के कारण अभी तक कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया है।
- विपक्षी दलों ने समिति के गठन को ही असंवैधानिक बताया और बहिष्कार किया।
अब आगे क्या?
वन नेशन, वन इलेक्शन का विचार कागज़ पर भले ही आकर्षक लगे, लेकिन इसे लागू करना संवैधानिक, राजनीतिक और व्यवहारिक रूप से अत्यंत जटिल है।
सरकार को इसके लिए:
- संविधान संशोधन करना होगा
- राज्यों की सहमति लेनी होगी
- चुनाव आयोग को पूरी रूपरेखा तैयार करनी होगी
जब तक इन चुनौतियों पर राजनीतिक सर्वसम्मति नहीं बनती, तब तक यह विचार एक प्रस्ताव भर बना रहेगा।
निष्कर्ष
“वन नेशन, वन इलेक्शन” एक विचार के रूप में मजबूत हो सकता है, लेकिन भारत जैसे विविधता वाले देश में इसे लागू करना आसान नहीं है। इसमें जितनी संभावना है, उतनी ही जटिलता भी है। अगर सरकार इस दिशा में गंभीर है, तो उसे सभी पक्षों को साथ लेकर एक लंबी रणनीति बनानी होगी, अन्यथा यह एक बार फिर सिर्फ एक चुनावी नारा बनकर रह जाएगा।